जब स्वामी विवेकानंद ने पूरी दुनिया को पढ़ाया शांति का पाठ

जब स्वामी विवेकानंद ने पूरी दुनिया को पढ़ाया शांति का पाठ

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अमेरिका के बहनों और भाईयों..!!

आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं।

जब स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर, 1893 को अमेरिका के शिकागो में अपने भाषण की शुरूआत कुछ इस तरीके से की, तो पश्चिमी देश भारत की संस्कृति और सभ्यता जानकार हैरान रह गए। इससे पहले इन देशों के दिमाग में भारत की छवि ‘सपेरों के देश’ की ही थी, लेकिन स्वामी विवेकानंद के इस चर्चित भाषण ने काफी कुछ बदल दिया।

स्वामी विवेकानंद ने भाइयों और बहनों कहकर भाषण की शुरूआत की तो दुनिया को एक धागे में पिरो दिया और जता दिया कि भारत की संस्कृति कितनी समृध्द है।

स्वामी विवेकानंद के इस भाषण को दिए सवा सौ साल हो चुके है लेकिन कई मायनों में यह आज भी उतना ही सार्थक हैं। उस समय उन्होंने संसार में हो रही हिंसा और धर्म के मुद्दा को उठाया था और आज भी इन समस्याओं से दुनिया जूझ रही हैं। इसलिए उनके इस भाषण को आज फिर से लोगों को सुनने और समझने की जरूरत हैं।

Image: Vivekananda Samiti Youtube Channel

भाषण के कुछ अंश

* मुझे गर्व है कि मैं उस देश से हूं, जिसने सभी धर्मों और सभी देशों के लोगों को अपने यहां शरण दी।

* मेरा धन्यवाद कुछ उन लोगों को है, जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार पूरब के देशों से फैला है।

* जिस तरह अलग-अलग जगहों से निकली नदियां, अलग-अलग रास्तों से होकर आखिरकार समुद्र में मिल जाती हैं, ठीक उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा से अलग-अलग रास्ते चुनता है। ये रास्ते देखने में भले ही अलग-अलग लगते हैं, लेकिन ये सब ईश्वर तक ही जाते हैं।

* मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा।

स्वामी विवेकानंद के बारे में

स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी, 1863 को कोलकता में हुआ था। सन्यासी बनने से पहले लोग उन्हें नरेन्द्रनाथ दत्त के नाम से बुलाते थे। बचपन से ही विवेकानंद काफी धार्मिक प्रवृत्ति के थे। पिता की मृत्यु के बाद जब उनके दिन काफी गरीबी में बीत रहे थे, तब भी विवेकानंद खुद भूखे रहकर मेहमानों को भोजन कराते, स्वयं बाहर बारिश में रातभर भीगते-ठिठुरते पड़े रहते लेकिन मेहमान को अपने बिस्तर पर सुला देते।

स्वामी विवेकानन्द पर उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस का बहुत प्रभाव था और 25 साल की उम्र में ही उन्होंने घर छोड़ दिया और पूरे देश की यात्रा की।

Feature Image: India TV

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