इतिहास में ऐसी बहुत सी महिलाएं है, जिन्होंने तमाम विरोधों और मुश्किलों के बावजूद अपने फौलादी इरादों से ऐसी मिसाल कायम की है, जो आज भी महिलाओं को आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है।
महिला सशक्तिकरण की मिसाल- सावित्रीबाई फुले | इमेज: द इंडियन एक्सप्रेस
सावित्रीबाई फुले
सावित्रीबाई भारत की पहली महिला शिक्षिका, जिसने न सिर्फ महिलाओं की शिक्षा का रास्ता खोला, बल्कि सामाजिक कुरीतियों को भी हराया। सावित्रीबाई ने अपने पति ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर उन्नीसवीं सदी में स्त्रियों के अधिकारों, शिक्षा छुआछूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह और विधवा-विवाह जैसी कुरीतियां के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी। सिर्फ नौ साल की उम्र में ही उनकी शादी हो गई, लेकिन पढ़ाई के शौक को देखते हुये सावित्रीबाई के पति ने उन्हें पढ़ने के लिये प्रेरित किया। तमाम विरादों के बावजूद उन्होंने न सिर्फ पढ़ना-लिखना सीखा बल्कि वह देश की पहली महिला शिक्षिका बनने में भी सफल रहीं।
डॉ. आनंदी गोपाल जोशी
आनंदी गोपाल जोशी उस दौर में डॉक्टर बनीं, जब लड़कियों का पढ़ना ही किसी सपने की तरह था। नौ साल की उम्र में शादी हुई और करीब 14 साल की उम्र में मां भी बन गईं, लेकिन दस दिन में ही बेटे की मौत के बाद उन्होंने डॉक्टर बनने का फैसला किया। पति ने उनके इस सपने को पूरा करने में बहुत मदद की। मेडिकल की पढ़ाई के लिए वह अमेरिका गई और 1886 में 19 साल की उम्र में आनंदीबाई ने एमडी की डिग्री हासिल की। हालांकि वह भारतीय की पहली महिला डॉक्टर बनी लेकिन लोगों की सेवा का अपना संकल्प वह ज़्यादा दिनों तक नहीं निभा पाई। टीबी की बीमारी का शिकार होने की वजह से सिर्फ 22 साल की उम्र में ही उनकी मौत हो गई।
रमाबाई रानाडे
रमाबाई रानडे ने महिलाओं को शिक्षित और आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में महत्वूपर्ण काम किया है। 11 साल की उम्र में उनकी शादी जस्टिस महादेव गोविंद रानाडे से हो गई, जो विद्वान और समाज सुधारक थे। पति की मदद से ही रमाबाई ने पढ़ना-लिखना सीखा। पहले उन्होंने मराठी सीखी और बाद में अंग्रेज़ी और बंगाली भाषा में भी महारत हासिल कर ली। पढ़ाई का नतीजा यह हुआ कि वह सार्वजनिक मंचों पर महिलाओं के लिए आवाज़ बुलंद करने लगीं। रमाबाई ने मुंबई में ‘हिंदू लेडीज सोशल क्लब’ की शुरुआत की, जहां महिलाओं को सिलाई, प्राथमिक उपचार के साथ ही मराठी और अंग्रेज़ी भाषा भी सिखाई जाती थी। रमाबाई ने अपनी पूरी ज़िंदगी महिलाओं की ज़िंदगी संवारने में लगा दी।
ऊषा मेहता
आज़ादी की लड़ाई के दौरान जब अंग्रेज़ों ने सभी रेडियो ब्रॉडकास्टिंग लाइसेंस रद्द कर दिये, तब कुछ लोगों की मदद से एक बिल्डिंग में ट्रांसमीटर लगाकर कांग्रेस के सीक्रेट रेडियो का प्रसारण शुरू हुआ और इस रेडियो स्टेशन से जो आवाज़ गूंजी, वह ऊषा मेहता की थी। अंग्रेज़ों को इस रेडियो स्टेशन की भनक न लगें, इसके लिए रोज इसकी जगह बदल दी जाती थी। उस समय लोगों में आज़ादी का जोश भरने में इस रेडियो स्टेशन ने अहम भूमिका निभाई थी। हालांकि 88 दिनों के बाद अंग्रेज़ों को सीक्रेट रेडियो का पता चल गया और ऊषा मेहता और उनके बाकी साथियों को जेल हो गई। आज़ादी के आंदोलन में उनकी भूमिका बहुत खास थी।
कित्तूर की रानी चेन्नमा
रानी चेन्नमा पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी थी, जिन्होंने दो बार अंग्रेज़ों की सेना को धूल चटाई। अपने पति की पहली पत्नी के बेटे को राजगद्दी पर बैठाकर उसे प्रशिक्षित किया, लेकिन कुछ ही दिनों में उसकी मौत हो गई। ऐसे में राजगद्दी पर रानी खुद ही बैठ गई और जब अंग्रेज़ो ने राज्य को लूटने के मकसद से हमला किया, तो उन्होंने अंग्रेज़ों को हरा दिया लेकिन तीसरी बार छल से अंग्रेज़ी सेना रानी को बंदी बनाने में कामयाब रही।
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