आजकल प्लास्टिक खिलौनों को चलन काफी ज़ोरों पर है, लेकिन देश में लकड़ी के बने खिलौनों का अपना ही इतिहास और परम्परा है। कुछ ऐसे ही चन्नापटना खिलौने हैं, जो भारत की अपनी पारम्परिक हस्तकला है।
इतिहास है पुराना
यह खिलौने चन्नपटना में बनाए जाते हैं जो दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य में बेंगलुरु और मैसूरु के बीच एक छोटा शहर है। इसे ‘खिलौनों का शहर’ भी कहा जाता है। चन्नापटना खिलौनों का संबंध टीपू सुल्तान के शासन से है। ऐसा कहा जाता है कि सुल्तान को फारस से एक लकड़ी का खिलौना उपहार में मिला था। इस उपहार से सुल्तान इतने खुश हुए कि उन्होंने फारस से कारीगरों को बुलवाकर अपने यहां के कारीगरों को कला सिखवाई। माना जाता है कि जो कारीगर इन खिलौनों को बनाना सीख गए वह सब चन्नापटना में ही रहकर खिलौने बनाने लगे। उनकी कई पीढ़ियां इसी कला से जुड़ी हुई है।
खिलौनों की खासियत
चन्नापटना खिलौनों को पुराने ज़माने में आइवरी लकड़ी से बनाया जाता था, जो हल्की होने के साथ-साथ काफी मज़बूत भी होती थी। इसके बाद खिलौनों को पॉलिश किया जाता था। आज के दौर में इन खिलौनों का निर्माण सागौन, गूलर, देवदार, रबरवुड, पाइनवुड आदि की लकड़ियों से किया जाता है। इन खिलौनों को बनाने में लकड़ी का बिल्कुल भी बर्बाद नहीं किया जाता। दरअसल, बची हुई लकड़ी को अन्य खिलौने बनाने में या हवन सामग्री के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इन खिलौनों को बनाने के लिए विश्व व्यापार संस्था में चन्नापटना पारंपरिक हस्तकला को भौगोलिक संकेत (GI) का दर्जा दिया गया है।
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खिलौनों में संस्कृति की झलक
चन्नापटना खिलौना संस्कृति की पहचान है। इन खिलौनों को बनाते समय कारीगर खिलौनों को किसी पुरानी कथा के पात्र, कोई खास वेशभूषा, कोई चरित्र या किसी धरोहर से जोड़कर बनाते हैं। यह सिर्फ खेलने के लिए एक खिलौना ही नहीं है, बल्कि यह बच्चों को खेल के साथ नई चीज़ों की जानकारी भी देते हैं।
भले ही आज के बच्चों को प्लास्टिक तथा लोहे से बने खिलौने पसंद आते हैं। लेकिन भारत के परंपरागत खिलौनों की अपनी महत्ता है। हमें अपने देश की हस्तकला को बढ़ावा देते हुए इन खिलौनों से अपने बच्चों को जोड़ना चाहिए।
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