आज़ादी का ज़िक्र गांधी, खादी और चरखे के बिना अधूरा है। आज़ादी की लड़ाई में चरखा सिर्फ एक उपकरण नहीं, बल्कि आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता का प्रतीक बन गया था। आज़ादी की लड़ाई में इसे बहुत बड़े हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया था।
गांधी जी ने दी चरखे को अहमियत
देश की आज़ादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के स्वदेशी के नारे के बाद खादी और चरखे का जन्म हुआ। चरखा वैसे होता तो है मामूली सा सूत कातने वाला उपकरण, लेकिन गांधी जी ने उसे बहुत मूल्यवान बना दिया, क्योंकि चरखा स्वालंबन की निशानी बन गया था। दरअसल, 1908 में इंग्लैंड में रहते हुये ही उन्हें चरखे की बात सूझी थी।
चरखा आंदोलन
1916 में देश लौटने के बाद गांधी जी ने अहमदाबाद में सत्याग्रह आश्रम खोला और यहीं दो साल बाद गंगा बहन नामक विधवा महिला ने गांधी जी को चरखा लाकर दिया। फिर गांधी जी ने लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिये चरखे से सूत कातने का काम शुरू कर दिया। वह चरखे को अहिंसा की निशानी मानते थे, साथ ही वह इसे समानता का भी प्रतीक मानते थे। गांधी जी के मुताबिक चरखे पर शिक्षित, अनपढ़, स्त्री-पुरुष सभी तरह के लोग काम कर सकते हैं। चरखा बिना किसी भेदभाव के घूमता रहता है। इससे सामाजिक समानता बढ़ेगी। गांधी जी का मानना था कि चरखे के इस्तेमाल से गरीब महिलाओं को भी काम मिलेगा, जिससे वह आत्मनिर्भर बनेंगी।
खादी और चरखा
आज़ादी की लड़ाई के दौरान जब गांधी जी ने विदेशी सामान और कपड़ों का बहिष्कार किया, तो उस दौरान चरखे से सूत कातकर खादी कपड़े बनाने पर ज़ोर दिया। इस तरह से खादी और चरखा दोनों आज़ादी की लड़ाई के अहम हथियार बन गये। इसने लोगों को एकता के सूत्र में पिरोने का काम किया था। इसके ज़रिये उन्होंने न सिर्फ हिंदू-मुस्लिमों को एक करने की कोशिश की, बल्कि समाज के दबे-कुचले वर्ग और महिलाओं को आत्मसम्मान के साथ जीना सिखाया। उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ा। गांधी के लिए चरखा किसी हथियार से कम नहीं था।
सबको आत्मनिर्भर बनने की ज़रूरत
– चरखे का मकसद हर किसी को आत्मनिर्भर बनाना था, हमें भी हर तरह से आत्मनिर्भर बनने की कोशिश करनी चाहिये।
– समानता का भाव। चरखे के ज़रिये गांधी जी हर भेदभाव खत्म करना चाहते थे। हमें भी धर्म-जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिये।
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