‘गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय, बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताये।‘
कबीर का यह दोहा हर युग में एकदम फिट बैठता है जो कहता है कि अगर गोविंद और गुरु दोनों साथ खड़े हो तो पहले गुरु के पैर छूने चाहिए क्योंकि गुरू ही गोविंद के दर्शन कराते हैं।
अगर आप यह पढ़कर सोच रहे हैं कि क्या यह दोहा आज भी सार्थक है तो हम यह कहना चाहते है कि आज के हमारे बिज़ी जीवन में भी इस दोहे की बहुत वैल्यू है। बेशक, चाहे आज हम कितने भी बिज़ी हो जाए लेकिन हम सब की ज़िंदगी में कोई न कोई ऐसा इंसान जरूर होता है, जो हमें जीने का सलीका सिखाता है और आगे बढ़ने में हमारी मदद करता है।
बचपन में स्कूल के टीचर्स ने हमें पढ़ाने के साथ जीवन के तौर तरीके सिखाए तो कॉलेज में उन्होंने करियर को लेकर गाइड किया। तभी तो गुरू की जगह कोई नहीं ले सकता और आज टीचर्स डे के मौके पर अपने गुरू को याद करने से बेहतर उनके लिए कोई और तोहफा नहीं हो सकता।
वैसे हर साल 5 सितंबर को हम टीचर्स डे मनाते है पर क्या आपको पता है कि यह क्यों मनाया जाता है, तो आज हम आपको बताते है इसके पीछे की वजह –
टीचर्स डे की शुरूआत
दरअसल डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जब साल 1962 में देश के दूसरे राष्ट्रपति बने, तब उनके छात्रों और दोस्तों ने डॉ. राधाकृष्णन से इच्छा जताई कि वे सभी उनके जन्मदिन को मनाना चाहते हैं। यह सुनते ही उन्होंने जवाब दिया कि अगर उनके जन्मदिन को शिक्षकों के सम्मान में मनाया जाए तो उन्हें गर्व महसूस होगा। बस इसके बाद से सरकार ने उनके जन्मदिन को टीचर्स डे के रूप में मनाना शुरू कर दिया।
डॉ. राधाकृष्णन के बारे में
तमिलनाडु के थिरुत्तानी में जन्मे डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन पढ़ाई में बहुत अच्छे थे और एकडमिक लाइफ में उन्हें स्कॉलरशिप भी मिली थी। डॉ. राधाकृष्णन का मन हमेशा ही पढ़ाई में रमता था, शायद यही वजह थी कि उन्होंने अपने जीवन के 40 साल एक शिक्षक के रूप में बिताए।
बच्चों में थे पॉपुलर
डॉ. राधाकृष्णन के पढ़ाने का तरीका ऐसा था कि वह छात्रों के बीच बहुत पॉपुलर थे। ऐसा ही एक किस्सा बहुत मशहूर है। दरअसल जब वह मैसूर यूनिवर्सिटी छोड़कर कलकत्ता यूनिवर्सिटी में पढ़ाने जा रहे थे, तब छात्रों ने उन्हें फेयरवेल देने के लिए फूलों की बग्गी का इंतज़ाम किया। जब डॉ. राधाकृष्णन उस बग्गी में बैठे तो उस बग्गी को चलाने के लिए घोड़े नहीं थे। बस फिर क्या था, सभी छात्र उस बग्गी को खींचकर रेलवे स्टेशन तक लेकर गए और डॉ. राधाकृष्णन को भावुकता भरी विदाई दी।
ऐसे न जाने कितने किस्से हुए, जब छात्रों ने डॉ. राधाकृष्णन को ऐसे सम्मानित किया, जिसके बारे में सुनकर आंखें खुद ब खुद नम हो जाती हैं।
संसद में भी निभाया टीचर का रोल
जब डॉ. राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति बने तो उन्होंने राज्यसभा सत्रों की अध्यक्षता की। जब कभी भी सदस्य गुस्से में आते या संसद में ज्यादा तनातनी होती तो वह सदस्यों को संस्कृत या बाइबिल के श्लोक सुनाने लगते और सदस्यों को शांत कराते।
उन्होंने टीचिंग और राजनैतिक सफ़र में हमेशा एजुकेशन को महत्व दिया क्योंकि उनका मानना था कि बिना शिक्षा के इंसान कभी भी मंजिल तक नहीं पहुंच सकता है इसलिए हर इंसान के जीवन में एक शिक्षक होना बहुत जरूरी है।
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