भारतीय संस्कृति की विविधता खान-पान, रीति-रिवाजों के साथ पहनावे में भी झलकती है। जैसे कुर्ता-पायजामा, धोती, साड़ी और शॉल, ये भारतीयों की पहचान रही है। सर्दियों में अच्छी गुणवत्ता वाले गर्म कपड़े हर किसी की पसंद होते हैं। फिर चाहे इनके लिए कुछ ज़्यादा खर्च ही क्यों न करना पड़े। इसी कड़ी में है पश्मीना शॉल। ये एक ऐसा ही गर्म कपड़ा है, जो अपनी गर्माहट तथा शानदार कारीगरी के लिए दुनियाभर में मशहूर है।
इतिहास है पुराना
पश्मीना नाम एक फारसी शब्द “पश्म” से लिया गया है। इसका अर्थ है एक रीतिबद्ध तरीके से ऊन की बुनाई। वैसे तो इसकी शुरुआत नेपाल से हुई थी, लेकिन माना जाता है कि 15वी शताब्दी में कश्मीर के राजा ने राज्य में ऊन व्यवसाय की शुरुआत की थी। हालांकि इन शॉलों के निर्माण का इतिहास तीसरी शताब्दी ईसा पहले से देखा जा सकता है। इसे महाभारत के वक़्त से भी जोड़ा जाता है।
शाही पंसद
पश्मीना सदियों से पारंपरिक पहनावे का अभिन्न अंग रहा है। पहले के समय में, यह केवल राजाओं और रानियों द्वारा ही पहना जाता था और इस प्रकार यह शाही महत्व का प्रतीक था। पश्मीना की बुनाई कश्मीर राज्य में पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत के रूप में चली आई है।
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कैसे बनती है पश्मीना शॉल
पश्मीना बनाने वाली ऊन काफी खास होती है। ये हिमालय के अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पायी जाने वाली कश्मीरी बकरी की एक विशेष नस्ल से प्राप्त होती है। पश्मीना शॉल को हाथों और मशीन से बनाया जाता है। लेकिन कारीगरी की बेहतरीन मिसाल हाथों से बनी पश्मीना शॉल होती है। एक शॉल में कम से कम तीन बकरों की ऊन का इस्तेमाल होता है। पश्मीना के लिए इन ऊनों को चरखे के ज़रिए हाथों से ही काता जाता है। ये काम काफी मुश्किल और थकाने वाला होता है, इसलिए ऊन कोई अनुभवी कारीगर ही काट सकता है। इसे काटने के अलावा डाई करने में भी काफी मेहनत और समय लगता है। आज भारत से कहीं ज़्यादा विदेशों में पश्मीना की मांग है।
पश्मीना शॉल को यूं संभालें
वैसे तो पश्मीना शॉल बेहद नाजुक होते हैं, इन्हें हल्के से गर्म पानी में शैम्पू डाल कर धोना चाहिए। इन्हें हवा में सुखाना चाहिए। शॉल को नमी और गर्मी से रक्षा के लिए इन्हें अखबार में लपेट कर पॉलिथीन बैग में रखना चाहिए।
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