मणिपुर के लोंगपी बर्तन अपने आप में अनूठे बर्तन हैं। ये काले रंग की हस्तकलाएं काले पत्थर और मिट्टी के मिश्रण से लोंगपी गांव में बनाए जाते हैं। यह मिट्टी का ऐसा बर्तन है, जिसमें कुम्हार चाक का इस्तेमाल नहीं करता।
लोंगपी बर्तन का इतिहास
एल्युमिनियम के बर्तनों के चलन में आने से पहले तांगखुल नागा जनजाति के लोग मुख्य बर्तनों के रूप में काले पत्थर के बड़े-बड़े बर्तनों का ही इस्तेमाल किया करते थे। एक जमाने में इन बर्तनों को शाही बर्तन भी कहा जाता था, क्योंकि उस समय मणिपुर के अमीर और नवाबी ठाठ-बाट वाले लोग ही ये बर्तन खरीदने की ताकत रखते थे। इसी वजह से इन्हें शाही बर्तन भी कहा जाता था।
दो चट्टानों से बनते हैं बर्तन
इसके निर्माण के लिए कच्चे माल के रूप में दो तरह की चट्टानों का इस्तेमाल होता है। मौसम और वायुमंडल के प्रभाव से क्षरित हुई चट्टान और सर्पिल चट्टान को तोड़कर मिट्टी का रूप दिया जाता है। स्थानीय निवासियों के मुताबिक ऐसी चट्टान सिर्फ लोंगपी गांव में मिलती हैं। मिट्टी जैसा गाढ़ापन लाने के लिए चट्टानी पत्थरों को पीस कर उसको पानी के साथ मिला लिया जाता है। इस हल्के भूरे मिश्रण को पूरा दिन गूंथने के बाद शुरुआती स्लैब बनाने के लिए एक लकड़ी के तख्ते पर चपटा फैला लिया जाता है।
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बर्तन बनाने का तरीका
लोंगपी बर्तनों को कुम्हार के चाक पर आकार नहीं दिया जाता। हर बर्तन को सांचों और औजारों की मदद लेकर हाथ से ही आकार दिया जाता है। एक बार जब गढ़ी हुई मिट्टी सूख कर सख्त हो जाती है, तब उसको खुली भट्ठी के तेज ताप में 5 से 7 घंटे तक पकाया जाता है। बर्तनों को गर्म ही बाहर निकाल लिया जाता है। उनको माछी नामक एक स्थानीय पत्ते से घिस-घिस कर चिकना बनाया जाता है।
सेहत के लिए अच्छा
बर्तन में रखा खाना चूल्हे से उतारने के काफी समय बाद तक गर्म बना रहता है। बर्तन में इस्तेमाल किए गए कच्चे पदार्थ बिलकुल कुदरती होते हैं और इनमें कोई रसायन इस्तेमाल नहीं किया जाता है, जिसकी वजह से उनमें बना खाना सेहत के लिए फायदेमंद होता है।
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