भारत में हर शुभ अवसर पर मिठाई से मुंह मीठा करने की परम्परा है और ये मिठाई हर रिश्तों में भी मिठास घोल देती है। कुछ मिठाइयां सदियों पुरानी हैं, तो कुछ के प्रचलन के पीछे मज़ेदार कहानियां है। कुछ ऐसी ही दिलचस्प मिठाईयों के बारे में जानते हैं जिनमें स्वाद के साथ सुंदर कला छिपी है और जिनके बिना कोई भी उत्सव पूरा नहीं होता।
ठेकुआ या पिठा
यह मिठाई बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और मध्य प्रदेश में मशहूर है। यह प्रसाद के रुप में छठ पूजा में खासतौर पर चढ़ाया जाता है। भूने हुए गेंहू के आटे से बने ठेकुआ को कई दिनों तक रखा जा सकता है। इसे बनाने के लिए मिट्टी के चूल्हे का इस्तेमाल किया जाता है और आम की लकड़ियों से आंच देकर पकाया जाता है। इसकी वजह है कि हाथ से बने ठेकुएं की रूप रेखा पकने के बाद भी सुंदर दिखे। इसकी खास बात यह कि ठेकुआ बनाते समय महिलाएं मिलकर लोकगीत गाती है।
गोयना बोरी
बंगाल का सबसे पुराना और पारंपरिक व्यंजनों में से एक है गोयना बोरी। बंगाली में गोयना या गोहोना का अर्थ गहना यानी आभूषण है। इसे गहने के रूप में डिज़ाइन किया जाता है। कुछ लोग इसे ‘नक्श बोरी’ भी कहते हैं। इस मिठाई के पीछे एक सुंदर किस्सा रबीद्रनाथ टैगोर का है। सन 1930 में शांतिनिकेतन के एक छात्र ने अपनी मां और दादी के हाथों से बना ताज़ा गोयना बोरी टैगोर को परोसा। मिठाई की नक्काशी देखकर वह चकित रह गए कि खाने वाली चीज़ों का भी इतना सुंदर डिज़ाइन बनाया जा सकता है। इस कला को लोगों तक पहुंचाने के लिये उन्होंने शांति निकेतन की आर्ट बिल्डिंग से इन मिठाइयों की तस्वीर लगाने की अनुमति मांगी थी।
एला अड़ा या एलयप्पम
दक्षिण भारतीय मिठाइयां अपने अलग तरह के स्वाद और बनाने के तरीके के लिए जानी जाती है। इनमें से ज़्यादातर मिठाइयों में उबली हुई सामग्रियों का प्रयोग होता है, जिससे खाने का स्वाद कई गुना बढ़ जाता है और सेहतमंद रहता है। चावल के आटे, गुड़ और नारियल से बना केरल का एक पारंपरिक व्यंजन है एलयप्पम या एला अड़ा। इसे केले के पत्ते में लपेट कर भाप में पकाया जाता है। इस मिठाई को ओणम और गणेश चतुर्थी जैसे विशेष त्योहार पर बनाया जाता है। इसके अलावा इसे सुबह या शाम के नाश्ते में और चाय या कॉफी के साथ भी खाया जा सकता है।
बताशा
तीज-त्योहारों में चीनी के खिलौनों की मिठास अरसे से बरकरार है। पौराणिक काल से चली आ रही खिलौनों की परंपरा आज भी कायम है। मकर संक्राति के समय इसकी बहुत मांग होती है। पहले चीनी की चाशनी बनती है फिर इसे लकड़ी के सांचों में डाल दिया जाता है। इस सांचे में हाथी, शेर, मीनार, मछली, बत्तख, मुर्गा, झोपड़ी, ताजमहल जैसी आकृतियां बनी होती है। खाने में यह काफी कुरकुरे होते हैं और चीनी के वजह से भरपूर मीठे भी।
इमरती
इसकी शुरुआत मुगल रसोइयों के द्वारा हुई थी। इसे पहले शाही व्यंजन या मिठाई माना जाता था। इमरती गोल तथा फूलों के आकार की तरह सुंदर और खाने में अत्यंत ही नर्म और स्वादिष्ट होती है। यह मुंह में रखते ही घुल जाती है और इसकी मिठास जबेली से थोड़ी कम होती है। उड़द की दाल को पीसकर कुछ घंटों के लिए फूलने के लिए छोड़ दिया जाता है और फिर इसकी फूलों की आकृति बनाकर तेल में तला जाता है। अंत में चाशनी में सोखने के लिए डाला जाता है। इसमें रंग लाने के लिए केसर का प्रयोग होता है।
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