आपको जानकर शायद हैरानी हो कि भारत की पहली इलेक्ट्रिकल महिला साल 1943 में बनी थी। दरअसल वह दौर ऐसा था, जब महिलाओं पर कुप्रथाओं का बोझ काफी ज़्यादा था। हालांकि आज भी देश के कुछ हिस्सों में लोग लड़कियों की तुलना में लड़कों की पढ़ाई को ज़्यादा महत्व देते हैं। पर जिस समय की हम बात कर रहे हैं, उस समय लड़कियों को ज़्यादा नहीं पढ़ाया जाता था।
कैसे बनीं इंजीनियर?
1900 के शुरुआती दौर में लड़कियों की जल्दी शादी करना एक आम बात थी, शायद इसलिये ललिथा की 15 साल की उम्र में ही शादी कर दी गई थी। तीन साल बाद 18 साल की उम्र में उन्होंने एक बेटी को जन्म दिया, जिसके चार महीने बाद उनके पति की मृत्यु हो गई थी। उस समय मद्रास (चेन्नई) में सती प्रथा तो प्रचलित नहीं थी, लेकिन विधवाओं के साथ जो सलूक किया जाता था, उसे ए ललिथा ने स्वीकार करने से मना कर दिया। उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और अपने पिता पप्पू सुब्बा राव और भाइयों के रास्ते पर चलते हुए इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग करने का फैसला किया।
कैसा रहा कॉलेज का सफर?
ललिथा के पिता कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग-गिंडी में प्रोफेसर थे। उन्होंने कॉलेज के प्रिंसिपल और डायरेक्टर से बात करके ललिथा का ईसीजी में एडमिशन करवा दिया। ललिथा कॉलेज की पहली महिला स्टूडेंट थीं, जिसके बाद दो और छात्राओं ने वहां दाखिला लिया। साल 1943 में ललिथा ने अपनी ग्रैजुएशन पूरी की, जिसकी डिग्री उन्हें 1944 में मिली।
ललिथा की वर्क लाइफ
– 1943 में जमालपुर रेलवे वर्कशॉप में एक साल की एप्रेंटाइसशिप की।
– 1944- 1946 में सेंट्रल स्टैंडर्ड ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ इंडिया, शिमला में बतौर इंजिनियरिंग असिस्टेंट काम किया। इसी बीच उन्होंने इंस्टीट्यूशन ऑफ इलेक्ट्रिकल इंजीनियर्स, लंदन, यूके का ग्रैजुएटशिप एग्ज़ाम भी दिया।
– पिता के कहने पर ललिथा ने उन्हें रिसर्च में ज्वॉइन किया, लेकिन कुछ समय बाद फाइनेंशियल कारणों के चलते 1948 में असोसिएट इलेक्ट्रिकल इंडस्ट्रीस (एईआई) ज्वाइन कर लिया था। भारत के सबसे बड़े भाखड़ा नांगल बांध के लिये विद्युत जनरेटर प्रॉजेक्ट उनके प्रसिद्ध काम है।
ललिथा ने पूरी दुनिया में कांफ्रेंस और दूसरी इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग संबंधी सोसाइटीज़ में अपनी पहचान बनाकर देश का नाम रोशन किया।
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