मां हमारी ज़िंदगी की पहली टीचर होती हैं, जो हमें इस दुनिया में लेकर आती हैं। इसके बाद जब हम थोड़ा बड़े होते है तो मां की अंगुली के साथ अपने टीचर की अंगुली भी थाम लेते है और टीचर में भी हमें मां दिखने लगती है। महिला टीचर के साथ बच्चा इमोशनली ऐसे जुड़ जाता हैं, जैसे वो अपनी मां के साथ हो।
ऐसा ही कुछ इमोशनल जुड़ाव महिलाओं का अपने आसपास में रहने वाले बच्चों के साथ हो गया, जो स्कूल नहीं जाते थे। बस फिर क्या था, उन्होंने इन बच्चों को पढ़ाने का जिम्मा ले लिया। इन टीचर्स के सामने न तो कोई उम्र की दीवार आई और न ही वे परेशानियों से घबराई। उनकी इसी मेहनत के कारण आज न जाने कितने बच्चों को एजुकेशन मिल रही हैं।
उम्र बढ़ने के साथ हौसलें भी बढ़े
जैसे ही विमला कौल क्लास में आती हैं, ऊंची आवाज़ में बच्चों की गुड मॉर्निग सुनकर उनके चेहरे पर जो मुस्कान आती है, वो सारा दिन पूरे जोश के साथ काम करने के लिए काफी होती हैं। विमला कौल का शरीर चाहे 83 साल का हो गया हो लेकिन बच्चों को पढ़ाने का जनून आज भी उनके दिल में हैं। करीब 23 साल पहले सरकारी स्कूल से टीचर के पद से रिटायर हुई विमला गरीब बच्चों के लिए कुछ करना चाहती थी। बच्चों को पढ़ाकर उनका भविष्य संवारने का विकल्प विमला को बहुत अच्छा लगा। दिल्ली में रह रहे इन बच्चों के माता-पिता या तो दिहाड़ी मज़दूर है या फिर माएं लोगों के घरों में काम करती हैं।
विमला और उनके पति स्कूल में बच्चों को पढ़ाने के साथ साथ योगा, डांस और फिज़िकल एजुकेशन की शिक्षा भी देते हैं। इस उम्र में गरीब बच्चों को पढ़ाने के विमला कौल के इस जज्बे को हमारा सलाम।
छोटी सी उम्र में टीचर
एक तरफ 83 साल की विमला कौल हैं तो दूसरी तरफ भारती कुमारी है, जिसने 12 साल की छोटी सी उम्र में खुद भी पढ़ाई की और अपने आसपास के बच्चों को भी पढ़ाया। पटना से करीब 87 किमी दूर कुसुमभरा गांव में आम के पेड़ की छाया में वह गांव के 50 बच्चों को इंग्लिश, मैथ्स और हिंदी पढ़ाती। सुबह पहले खुद स्कूल जाती और फिर घर आकर उन बच्चों को पढ़ाती, जो स्कूल नहीं जाते थे।
खेलने-कूदने की उम्र में भारती कुमारी की यह ज़िम्मेदारी वाकई में हर किसी को इंस्पायर करती हैं।
हिम्मत के आगे पहाड़ भी झुके
गढ़वाल के छोटे से गांव गामडिदगांव में पढ़ाने वाली मधुलिका थापियाल प्राइमरी स्कूल में अपनी एस्सिटेंट के साथ पाँचों क्लास के सारे सब्जेक्ट पढ़ाती हैं। मधुलिका के दिन की शुरूआत सुबह 4 बजे हो जाती हैं, घर के काम निपटाकर वह घुमावदार पहाड़ी चढाई पार करते हुए स्कूल पहुंचती है। मॉनसून में कभी कभी स्कूल जाते समय वह किसी ना किसी पॉइंट पर कमर तक पानी में गहरी डूब जाती हैं लेकिन इन दिक्कतों को कभी अपनी टीचिंग में रोड़ा नहीं बनने देती। मधुलिका रोज़ समय पर स्कूल पहुंचती है और आजतक मौसम या किसी भी वजह से उन्हें देर नहीं हुई।
गांव के बच्चों को एजुकेशन देने के लिए मधुलिका की इस हिम्मत को हमारा सैल्यूट।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि टीचर्स का दर्जा भगवान के बराबर हैं लेकिन जब हम ऐसी महिलाओं को देखते हैं, जो विपरीत स्थितियों में भी हिम्मत करके बच्चों का भविष्य संवारने में लगी हैं तो उनको सम्मान देने के लिए सिर खुद ब खुद ही झुक जाता हैं।
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