कहीं टीवी-मोबाइल तो नहीं बन रहा आपके बच्चों का दोस्त?

कहीं टीवी-मोबाइल तो नहीं बन रहा आपके बच्चों का दोस्त?

घर में कुछ नियमों में बदलाव करके अपने बच्चों को टीवी-मोबाइल से दूर रखा जा सकता हैं
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इससे पहले में इस लेख की शुरुआत करुं, मैं यह बताना चाहती हूं कि मैं एक ‘एंटी-स्क्रीन’ पर्सन हूं, जिसका मतलब है कि मैं समय बिताने के लिए मोबाइल या टीवी के इस्तेमाल को पसंद नहीं करती। लेकिन मैं यह भी मानती हूं कि ज़्यादातर लोग बच्चे होने के बाद खुद के लिए सुकून के दो पल ढूंढने के लिए बच्चों को मोबाइल और टीवी पर लगा देते हैं। अगर सुकून से चाय पीनी हो, तो बच्चे के हाथ में मोबाइल पकड़ा दो, अगर पांच मिनट से ज़्यादा देर तक नहाना हो, तो उसे टीवी के सामने बिठा दो। आज हर किसी के लिए बच्चे को एंगेज रखने का सबसे आसान तरीका ‘स्क्रीन-टाइम’ बन गया है, या कहें की बच्चे की देखभाल करने वाली नैनी की तरह हो गया है।

हमने भी मदद ली ‘स्क्रीन-नैनी’ से

मेरा बच्चा ढाई साल का था, जब उसके दादा जी आईसीयू में भर्ती थे। सारा दिन काम और उनकी देखभाल के बीच हम दोनों में इतनी हिम्मत नहीं बचती थी कि उसके साथ समय बिता सकें। यही वो समय था जब मेरे बेटे को मोबाइल पर नर्सरी की कविताएं और ‘पेपा पिग’ देखने की आदत पड़ गई।

प्ले सकूल से आते ही उसे मोबाइल चाहिए होता था और न देने पर वो शोर मचाने लगता था। हमारे फोन को फेंक देता और बिना फोन के खाना नहीं खाता था। धीरे-धीरे उसका गुस्सा बढ़ने लगा और सभी दूसरी चीज़ो से उसका ध्यान हटने लगा क्योंकि वो अपने अंदर की एनर्जी को दिशा नहीं दे पा रहा था। जैसा कि मैनें आपको बताया कि मैं एक ‘एंटी-स्क्रीन’ इंसान हूं, मेरे लिए यह हिला देने वाली बात थी कि मेरे बेटे को स्क्रीन टाइम की लत लग गई थी। मेरे पति भी इस लत के शिकार हैं और देर रात तक मोबाइल पर पिक्चर देखना उनके लिए आम बात है।

बच्चों को दें अपना समय
बच्चों को दें अपना समय | इमेज : फाइल इमेज

उठाया एक सख्त कदम

क्योंकि मैं जानती हूं कि सारा दिन मोबाइल और टीवी से व्यक्ति कल्पना और क्रिएटिविटी कम होने लगती है, इसलिए यह सब देखते-देखते एक दिन मेरे सब्र का बांध टूट गया। बस फिर मैंने घर में एक नियम लागू कर दिया कि चाहे कुछ भी हो जाए, बच्चे को मोबाइल नहीं दिया जाएगा और माता-पिता के तौर पर हम भी बच्चे के सामने अपने मोबाइल को हाथ नहीं लगाएंगे, ताकि बच्चे को हमारा पूरा समय मिल सके।

आने लगा बदलाव

हालांकि थोड़ा समय लगा और मुझे नौकरी बदलनी पड़ी, ताकि मैं बच्चे को और समय दे सकूं, लेकिन मेरे बच्चे में पॉज़िटिव बदलाव आने लगा। मैं पहले एक घंटे की जगह दो घंटे पार्क लेकर जाने लगी। उसे कई पहेलियां सुलझाने में मज़ा आता, तो उसके लिए ऐसे गेम्स लाकर उसके साथ खेलने लगी। हमने उसे घर के कामों में मदद करने के लिए शामिल करना शुरु कर दिया और चाहे वो खेल-खिलौनो से कितना भी घर क्यों न फैला दे, मुझे कोई दिक्कत नहीं होती। मैं घर वापस साफ करने में अब उसकी मदद लेने लगी हूं, और जहां ज़रूरी हो, इसके लिए उसे कुछ इनाम भी दे देती हूं।

थोड़ा स्क्रीन टाइम होता है ज़रूरी

हालांकि बाद में मैंने उसे थोड़ा समय मोबाइल देखने की इजाज़त दे दी। जब वो अपने दादाजी से मिलने जाता है, तो उसे वहां ‘निक जूनियर’ देख लेता है। लेकिन अब मेरे बेटे को टीवी की बजाय बैडमिंटन खेलते देखना ज़्यादा पसंद है।

तो अगर आपका बच्चा भी बहुत ज़्यादा टीवी-मोबाइल देखता है, तो आज ही अपने घर के नियमों  में कुछ बदलाव करें।

अनन्या दिल्ली में रहने वाली एक कामकाजी मां हैं। यहां बताई गई बातें उन्होंने अपने पांच साल के  बेटे पर आज़माई है।

और भी पढ़िये : ‘ना’ कहना क्यों ज़रूरी है?

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