अब दादी-नानी को भी मिली कलम की ताकत

अब दादी-नानी को भी मिली कलम की ताकत

पुणे में खासतौर से बुजुर्ग महिलाओं के लिए खुला स्कूल
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कहते हैं कि कलम की ताकत बहुत बड़ी होती है और इसीलिए तो हम अपने बच्चों को शुरुआत से ही पढ़ाने लगते हैं। कुछ लोग तो नौकरी करने के दौरान भी किसी न किसी तरह का कोर्स करते रहते हैं, जिससे वह समय की मांग को पूरा कर सकें। आप खुद के और अपने बच्चों की पढ़ाई के बारे में तो सोचते हैं, लेकिन जाने-अनजाने में उनके बारे में सोचना भूल जाते हैं, जिन्होंने पहले आपको ज़िंदगी का सबसे पहला पाठ पढ़या था और फिर आपके बच्चों को सिखा रही हैं। जी हां, वो हैं आपकी या आपके बच्चों की दादी या नानी।

चाहे कोई कुछ भी कहे लेकिन सच तो यही है कि, उनको शायद वह मौका नहीं मिल सका जो आपको मिला है। और वह कहीं न कहीं मन में यह ज़रूर सोचती हैं कि “काश! मैं भी पढ़ना-लिखना जानती”।

चलिए आपको बताते हैं एक ऐसे स्कूल के बारे में, जो खास एक गांव आजी यानि की दादी और नानी के सपनों को साकार करने के लिए बनाया गया।

आजीबाईंची शाला (दादी की पाठशाला)

योगेंद्र बांगर ने महाराष्ट्र के फांगने गांव में साल 2016 में इस स्कूल की नींव डाली थी। उनके इस कदम से गांव की सभी बुज़ुर्ग महिलाओं के पढ़ने-लिखने का सपना साकार हो गया, जो अंगूठा लगाने की जगह आज गर्व से हस्ताक्षर करती हैं और किताबे भी पढ़ सकती हैं। हर दिन स्कूल की ड्रेस यानी कि गुलाबी रंग की साड़ी में बुजुर्ग महिलाएं स्कूल आती है। हर रोज़ दो से चार बजे तक स्कूल में महिलाएं शब्द, अक्षर, कविताएं, आर्ट, साफ-साफाई सभी तरह का ज्ञान अर्जित करती हैं। स्कूल की तरह उन्हें भी होमवर्क मिलता है, जिसे वह मास्टरजी से कम करने की गुज़ारिश करती हैं। लेकिन ज़रा सोचिए वो नज़ारा कैसा होता होगा, जब एक बुज़ुर्ग महिला अपने पूरे आत्मविश्वास और चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान के साथ आगे बढ़ती है।

बुज़ुर्ग महिलाओं का है यह स्कूल | इमेज : फेसबुक

कैसे जन्म लिया इस सोच ने

सामाजिक कार्यकर्ता योगेंद्र बांगर के अनुसार एक बार गांव में भगवान का पाठ चल रहा था, तो उन्होंने एक बुज़ुर्ग महिला को कहते हुए सुना कि, काश वो भी पढ़ सकती। बस यहीं से इस स्कूल को बनाने की सोच ने जन्म लिया। योगेंद्र को अपनी इस पहले में गांव वालों का बहुत साथ मिला। उनके लिए एक बहुत बड़ी कामयाबी यह है कि स्कूल में पढ़ने वाली सभी महिलाएं उम्र के इस पड़ाव में अपने सपने को केवल पूरा ही नहीं कर रहीं बल्कि हर दिन उसे जी भी रहीं हैं।

स्कूल की एक विद्यार्थी कहती है “अब भगवान के पास जाने पर जब पूछा जाएगा की धरती पर क्या किया, तो में गर्व से कहूंगी कि मैंने अपना नाम लिखना सीख लिया।”

और भी पढ़िये : क्यों ज़रूरी है बच्चों को भावनाएं सिखाना?

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