23 मार्च को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को उनके त्याग के लिए याद किया जाता है। जिस उम्र में बच्चे कॉलेज की पढ़ाई खत्म कर रहे होते हैं, उस उम्र में यह तीनों देश की आज़ादी के लिए शहीद हो गये थे। उनके इस बलिदान को नमन करने के लिए इस दिन को ‘शहीद दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
लालाजी की शहादत का लिया बदला
दरअसल बात उस समय की हैं, जब पूरा देश लाला लाजपत राय की मौत से सदमे में था। उस समय भगत सिंह और शिवराम राजगुरु ने अपने दूसरे साथी चंद्रशेखर आज़ाद और सुखदेव थापर के साथ मिलकर अंग्रेज़ों से बदला लेने की ठान ली थी। 17 दिसंबर 1927 को उन दोनों ने सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस जेम्स स्कॉट समझकर असिस्टेंट सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस जॉन सॉडर्स को गोली मार दी थी। स्कॉट के आदेश पर ही आंदोलनकर्ताओं पर लाठी-चार्ज की गई थी, जिसमें लाला जी शहीद हो गये थे। इस केस में सुखदेव को प्रमुख आरोपी माना गया था और उस केस का नाम ‘क्राउन वर्सेस सुखदेव एंड अदर्स’ था।
अंग्रेज़ सरकार के कानों तक पहुंचाई अपनी बात
8 अप्रैल,1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने सेंट्रल लेज़िस्लेटिव असेंबली में केवल आवाज़ वाले बम फोड़े और भागने के बजाय ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ के नारे लगाये और प्लान के मुताबिक खुद को अरेस्ट करवा दिया। बम फोड़ने के पीछे का मकसद असेंबली में ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ को पास होने से रोकना था। इसके लिये भगत सिंह को फांसी और बटुकेश्वर को उम्र कैद की सज़ा मिली थी।
कैसे हुए शहीद?
लाहौर कांस्परेसी केस में, भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को मौत की सजा दी गई थी। अदालत के आदेशानुसार तीनों को 24 मार्च 1931 को फांसी दी जानी थी, लेकिन 17 मार्च 1931 को पंजाब के गृह सचिव ने फांसी की तारीख को 23 मार्च 1931 में बदलकर शाम 7.30 बजे, लाहौर जेल में फांसी दे दी। उनका अंतिम संस्कार सतलुज नदी के किनारे किया गया था। इस दिन को पूरा देश शहीद दिवस के रूप में मनाता है।
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू हम सभी को प्रेरित करते रहे कि देश से बढ़कर कुछ नहीं होता और उनकी कुर्बानी को पूरा देश नतमस्तक सलाम करता है।
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