18वीं सदी से पहले पूरी दुनिया में अलग-अलग समय होता था, क्योंकि समय को सूरज के साथ देखा और मिलाया जाता था। यह तो आप जानते ही होंगे की दुनिया गोल है, धरती के एक हिस्से में जब दिन निकल रहा होता है तो वहीं दूसरे हिस्से में ढल रहा होता है। ऐसे में परेशानी तब शुरु हुई जब लोगों ने एक जगह से दूसरी जगह यात्रा शुरु की। क्योंकि समय एक स्थानीय प्रक्रिया थी, इसलिए यात्रियों को समय समझने में बड़ी मुश्किल होने लगी थी। इस परेशानी को हल करने के लिए कैनेडा के सर सैंडफोर्ड फ्लेमिंग ने 1884 में टाइम ज़ोन बनाया, जिससे पूरी दुनिया के समय को एक सही दिशा मिली।
क्या है टाइम ज़ोन?
दुनिया गोल है इसलिए दुनिया के नक्शे को देशांश रेखाओं (लॉंगीट्यूड) के आधार पर हर 15 डिग्री के अंतर पर 24 बराबर के काल्पनिक हिस्सों में बांट दिया गया है। इंग्लैंड के ग्रीनविच में स्थित वैधशाला को 0 डिग्री तय किया गया है, यही से समय की गिनती शुरु होती है। समय के इस माध्यम को ग्रीनविच मीन टाइम या अंतरराष्ट्रीय मानक समय कहा जाता है। ग्रीनविच रेखा से दाहिनी ओर वाले देशों का समय आगे होता है और ग्रीनविच रेखा से बाईं ओर वाले देशों का समय पीछे होता है।
भारत में यह रेखा इलाहाबाद के पास नैनी से गुज़रती है और यहीं से भारतीय राष्ट्रीय समय माना जता है। भारत का टाइम ज़ोन ग्रीनविच रेखा से 82.5° अंश दाहिनी ओर है, जिसका मतलब है कि भारत ग्रीनविच के मानक समय से साढ़े पांच घंटे आगे है। यानि जब ग्रीनविच रेखा के पास रात के 12 बजेंगे तब यहां सुबह के 5.30 बजेंगे।
क्यों भारत में हैं दो टाइम ज़ोन की ज़रूरत?
भारत का नक्शा देखेंगे तो आपको समझ आएगा कि पूर्व के कोने में अरुणाचल प्रदेश का डोंग गांव है और पश्चिम के कोने में गुजरात का गुहर मोटा गांव। अगर देशांतर रेखाओं के हिसाब से देखें तो भारत 97 डिग्री 24 मिनट पूर्व से लेकर 68 डिग्री 7 मिनट पूर्व तक फैला हुआ है, जो एक बड़ा क्षेत्र है। काफी समय से भारत के नॉर्थ ईस्ट के लोग इस क्षेत्र के लिए, अमेरिका जैसे देशों की तरह, अलग समय तय करने की बात कर रहे हैं, क्योंकि यहां सूरज देश के बाकी हिस्सों से पहले उदय होता है और अस्त भी पहले ही होता है। लेकिन दफ्तर के काम देश के बाकी हिस्सों की तरह दस बजे से ही शुरु होते हैं और दिन ढलने तक चलते हैं।
ऐसे में बिजली का खर्च एक बड़ी परेशानी है, जिसे टाइम चेंज करके काफी हद तक बचाया जा सकता है। गणित के हिसाब से देखा जाए तो वहां का नया टाइम ज़ोन बनाने से एक साल में करीब 2 करोड़ KWH बिजली बचाई जा सकती है, जिससे 100 वाट के 23 हज़ार हल्ब एक साल के लिए जल सकते हैं।
बाकी देशों का समय
नॉर्थ ईस्ट में सूर्योदय और सूर्यास्त देश के बाकी हिस्सों से दो घंटे पहले होता है। ऐसे में वहां के लोगों की सर्कैडियन रिदम भी प्रभावित होती है, क्योंकि जैसे-जैसे शाम होती है, वैसे ही मनुष्य का शरीर स्लीप हार्मोंन मेलाटोनिन बनने लगता है, जिससे सोने में मदद मिलती है। साथ ही जिन जगह सूरज देर रे ढ़लता है, वहां के बच्चों को लगभग आधा घंटा कम नींद मिलती है, क्योंकि स्कूल तो पूरे देश में लगभग एक ही समय पर शुरु और खत्म होते हैं, इसलिए जहां सूरज देर से निकला, बच्चे तब भी स्कूल के हिसाब से जल्दी उठ गए और सोए सूरज ढलने के हिसाब से। लेकिन एक बात और है कि देश में दो अलग टाइम ज़ोन होने की अपनी परेशानियां हो सकती हैं।
यह पढ़कर तो लगता है कि जिसने भी यह कहा है कि ‘समय बहुत बलवान है,’ सही कहा है।
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