साल 2000 में अलग राज्य बनते ही छत्तीसगढ़ कई तरह की समस्याओं से घिर गया, जिसमें से सबसे गंभीर हेल्थकेयर के क्षेत्र में थी। उस दौरान शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) और मातृ मृत्यु दर (एमएमआर) के आंकड़ों का स्तर काफी ज्यादा था और यह पूरे छत्तीसगढ़ राज्य के लिए चिंता की बात थी।
बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं का था अभाव
वैसे तो स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव पूरे छत्तीसगढ़ राज्य में ही था लेकिन दूरदराज के घनी आबादी वाले जंगली क्षेत्रों में मेडिकल सुविधाएं दे पाना किसी रिस्क से कम से कम नहीं था। दूसरी तरफ आदिवासी लोगों ने एडवांस मेडिकल सुविधाएं लेने से इंकार कर दिया था। वे अपनी प्राचीन रूढिवादी परंपराओं और प्रथाओं को छोड़ने के लिए कतई तैयार नहीं थे और इस वजह से मृत्युदर बढ़ती चली गई। इसकी एक वजह यह भी थी कि उस समय छत्तीसगढ की राजधानी रायपुर में सिर्फ एक ही नर्सिंग कॉलेज था।
आशा वर्कर्स की मुहिम रंग लाई
साल 2017 की हेल्थ रिपोर्ट से पता चला है कि इन 15 सालों में छत्तीसगढ़ में मां-बच्चे की मृत्युदर में 50 प्रतिशत की गिरावट आई। गर्व की बात यह हैं कि इस बदलाव को लाने में आशा वर्कर्स ने खूब मेहनत की थी और उनकी इस मुहिम ने साबित कर दिया कि महिलाएं समाज और राज्य की प्रगति में मज़बूत कड़ी का काम करती हैं। आशा वर्कर्स ने गांव की महिलाओं को जागरूक करने का काम किया और साथ ही चिकित्सा अधिकारियों ने स्थानीय महिलाओं को ट्रेनिंग भी दी और यह प्रोग्राम छत्तीसगढ़ में अभी भी बहुत अच्छे तरीके से चल रहा है, जिसमें राज्य भर में कुल 70 हजार पदाधिकारी काम कर रहे हैं। यह हेल्थ केयर डिपार्टमेंट का सबसे कामयाब मिशन है।
इनोवेटिव हेल्थ स्कीम का भी हुआ असर
छत्तीसगढ़ में कुछ इनोवेटिव हेल्थ स्कीम भी चलाई जा रही हैं, जिससे राज्य के लोगों की सेहत में लगातार सुधार हो रहा हैं।
कुल मिलाकर साल 2000 से छत्तीसगढ़ हेल्थ केयर सेवाओं के मामले में एक लंबा सफर तय कर चुका है और इसमें सबसे बड़ा योगदान महिलाओं का रहा हैं। यह दूसरे राज्यों के लिए भी एक बेंचमार्क है, जो आज भी अपनी हेल्थकेयर नीतियों से जूझ रहे हैं और वे निश्चित रूप से छत्तीसगढ़ से सीख ले सकते हैं।
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